15. हिंदी कविता: पार्थ तुम संघर्ष करो
सशक्त भुजाओं में थी कम्पन, झिझकोर रहा था अंतर्मन,
उर में थे प्रशन यही, कितनी उचित है नर बलि?
फूटेगी रक्त की धाराएँ, जब टकराएंगी अनंत सेनाएँ,
कहीं छिपा है इसमें स्वार्थ, डोल गया यह सोच के पार्थ |
भावों में वो बह चला, गांडीव बाहों से गिर गया,
सहम गया वो धनुर्धर, जैसे कोई हो नपुंसक |
टटोल रहा था मन को अपने, था केवल अन्धकार उसमें,
संशय की मंझधार में, दिखा सम्पूर्ण भरत वंश का अंत उसे |
निरर्थक ग्लानि से पूर्ण, क्षत्रिय कर्म को भूल,
उतर गया वो रथ से, टेक दिए घुटने उसने |
देख उसकी निन्दनिये दशा, महान सारथी बोल उठा,
संभलो वीर कुंती पुत्र, कहाँ गया तुम्हारा पुरुषत्व |
व्यर्थ है तुम्हारी व्यथा, उसका कारण है अज्ञानता,
माया ने है तुमको जकड़ा, स्मरण करो कर्तव्य अपना |
ना बनो पात्र उपहास के, व्यंग्य होगा तीखा तुम्हारे गौरव पे,
दृड़ करो चित अपना, नाश करो अधर्मियों का |
अंत सबका निश्चित है, सब मनुष्य नश्वर है,
ना भूलो उस तत्व को, जो अजर अमर है |
सुन कर वचन ये, प्रणाम सभी वीरों को कर के,
लौट आया कौन्त्य, पुन: युद्ध भूमि में |
थाम ली कमान उसने, लगा दी बाणों की झड़ी,
विजयी हुआ वो योद्धा, पाकर मार्ग दर्शन केशव से | 'तरुण
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