1. आस्था - धन्य श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी की कृपा से

आस्था शब्द का अर्थ अत्याधिक गूढ़ है | हम जैसे नश्वर जीव इसे परिभाषित नहीं कर सकते | लेकिन हम सौभग्यशाली हैं कि महान पुरुषों ने इसे अपनी करनी और कथनी में भली भाँति उजागर किया है | इसलिए मैं नमस्तक होता हूँ धन्य श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी के सम्मुख और उनसे अरदास करता हूँ कि हमें इस शब्द को समझने की समर्थता प्रदान करें |

आइए सर्वप्रथम गुरबाणी की कुछ पक्तियों का स्मरण करें:

ਮੈ ਆਸਾ ਰਖੀ ਚਿਤਿ ਮਹਿ ਮੇਰਾ ਸਭੋ ਦੁਖੁ ਗਵਾਇ ਜੀਉ॥

मै आसा रखी चिति महि मेरा सभो दुखु गवाइ जीउ||

ਡਿਠੇ ਸਭੇ ਥਾਵ ਨਹੀ ਤੁਧੁ ਜੇਹਿਆ॥

डिठे सभे थाव नही तुधु जेहिआ॥

उपरोक्त पंक्तियों मैं आप सबका ध्यान दो शब्दों की ओर केंद्रित करना चाहूँगा | पहला शब्द है 'आसा' और दूसरा शब्द है 'थाव' | आसा का अर्थ है 'आशा - उम्मीद' और थाव का अर्थ है 'स्थान' | तो जिस स्थान पर आशा का उदय हो वहीँ 'आस्था' का जन्म होता है | अर्थात आस्था शब्द दो शब्दों पर आधारित है 'आशा' और 'स्थान' |

अब यह जानना आवश्यक है कि 'आस्था' की उत्पत्ति कैसे होती है? क्या मनुष्य इसको जन्म देता है या मनुष्य इसे प्राप्त करता है? यह समझने से पहले आइए गुरबाणी की इन पंक्तियों का श्रवण करें:

ਊਡੇ ਊਡਿ ਆਵੈ ਸੈ ਕੋਸਾ ਤਿਸੁ ਪਾਛੈ ਬਚਰੇ ਛਰਿਆ॥

ਤਿਨ ਕਵਣੁ ਖਲਾਵੈ ਕਵਣੁ ਚੁਗਾਵੈ ਮਨ ਮਹਿ ਸਿਮਰਨੁ ਕਰਿਆ॥੩॥

ऊडे ऊडि आवै सै कोसा तिसु पाछै बचरे छरिआ॥

तिन कवणु खलावै कवणु चुगावै मन महि सिमरनु करिआ॥३॥

इन पंक्तियों से यह स्पष्ट है कि आस्था केवल मानव जगत में ही नहीं पशु जगत में भी है | और अगर हम विज्ञान की माने तो पशु जगत की उत्पत्ति मनुष्य जगत से बहुत पहले हुई थी | तो इसका अर्थ है आस्था मनुष्य की उत्पत्ति से पहले भी मृतलोक में विद्यमान थी | यदि कोई मनुष्य यह कहे उसने अपने आंतरिक मन में आस्था को जन्म दिया है तो वह अहँकार है | वह आंतरिक द्वन्द से जूझ रहा है | उसे समझना चाहिए की आस्था को जन्म नहीं दिया जाता उसे पाया जाता है | अगर आपका शीश अपने आप झुक जाए कृतज्ञता में तो उसे 'आस्था' कहते हैं |

इस विषय पर अग्रसर होने से पहले इस प्रश्न का समाधान करना भी आवश्यक है कि आस्था अगर मनुष्य के आस्तितव से पहले उपस्थित थी तो इसका जन्म कैसे हुआ? हमें यह नहीं भूलना चाहिए की आस्था भी मृतलोक का ही भाग है | और उसकी उत्पत्ति भी वैसे ही हुई होगी जैसे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की हुई होगी | जैसा की गुरबाणी की इन पंक्तियों से उजागर होता है |

ਏਕ ਨੂਰ ਤੇ ਸਭੁ ਜਗੁ ਉਪਜਿਆ ਕਉਨ ਭਲੇ ਕੋ ਮੰਦੇ॥੧॥

एक नूर ते सभु जगु उपजिआ कउन भले को मंदे॥१॥

और यही एक और कारण प्रतीत होता है कि आस्था कोई भी प्राप्त कर सकता है: पशु, मनुष्य, देव, दानव, दरिद्र, समृद्ध, उच्च, नीच | गुरबाणी से कुछ प्रमाण जो संकेत करते हैं की आस्था कोई भी प्राप्त कर सकता है |

ਕਰ ਧਰੇ ਚਕ੍ਰ ਬੈਕੁੰਠ ਤੇ ਆਏ ਗਜ ਹਸਤੀ ਕੇ ਪ੍ਰਾਨ ਉਧਾਰੀਅਲੇ ॥

कर धरे चक्र बैकुंठ ते आए गज हसती के प्रान उधारीअले ॥

हस्ती को बचाने वह क्यों आएगा? क्योंकि हस्ती को उसपर आस्था थी और उसने मन में प्रार्थना की |

ਮੈ ਅੰਧੁਲੇ ਕੀ ਟੇਕ ਤੇਰਾ ਨਾਮੁ ਖੁੰਦਕਾਰਾ ॥ ਮੈ ਗਰੀਬ ਮੈ ਮਸਕੀਨ ਤੇਰਾ ਨਾਮੁ ਹੈ ਅਧਾਰਾ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥

मै अंधुले की टेक तेरा नामु खुंदकारा ॥ मै गरीब मै मसकीन तेरा नामु है अधारा ॥१॥ रहाउ ॥

उपरोक्त शब्द भक्त नामदेव जी के हैं जिन्हें समाज ने अपनी रूढ़िवादी सोच के आधीन उन्हें निचली जाति का कहकर हमेशा तिरस्कृत किया | और उन्होंने ने अपनी दशा और आस्था इन शब्दों में प्रकट की है | 

आस्था कैसे पाई जाती है? इस संसार में सब कुछ उस परम पिता की इच्छा अनुसार होता है | उसकी कृपा किस पर होगी यह भी वही जानता है | लेकिन जिसपर उसकी कृपा हो जाए वह मनुष्य आस्था में डूबकर हर पहर केवल भक्ति में ही लीन रहता है |

ਜਿਸ ਨੋ ਨਦਰਿ ਕਰੇ ਸੋ ਧਿਆਏ॥ ਆਠ ਪਹਰ ਹਰਿ ਕੇ ਗੁਣ ਗਾਏ॥੩॥

जिस नो नदरि करे सो धिआए॥ आठ पहर हरि के गुण गाए॥३॥

आस्था क्यों आवश्यक है? इस जग में सबसे बड़ा दुःख है मृत्यु रुपी विछोड़ा | यही नहीं जीव आत्मा अनंत कष्टों भी झेलती है | और अकेले उसमें इतनी क्षमता नहीं की यह सब झेलकर वह भाव सागर को प्राप्त कर सके | मत भूलिए मनुष्य जीवन के एकमात्र लक्ष्य है - उस परम में विलीन होना |

ਭਈ ਪਰਾਪਤਿ ਮਾਨੁਖ ਦੇਹੁਰੀਆ॥ ਗੋਬਿੰਦ ਮਿਲਣ ਕੀ ਇਹ ਤੇਰੀ ਬਰੀਆ॥

भई परापति मानुख देहुरीआ॥ गोबिंद मिलण की इह तेरी बरीआ॥

और यह आस्था ही है जो उसे सक्षम बनाती है इन चुनौतियों के विरुद्ध | आंतरिक वसन, आंतरिक द्वन्द उसे नोचते रहते हैं | उसे परम सुख की अनुभूति नहीं होने देती | वह उसे उसका मूल नहीं पहचानने देते |

ਮਨ ਤੂੰ ਜੋਤਿ ਸਰੂਪੁ ਹੈ ਆਪਣਾ ਮੂਲੁ ਪਛਾਣੁ ॥

मन तूं जोति सरूपु है आपणा मूलु पछाणु ॥

यही आस्था मन में सिमरन को जन्म देती है जो मन में बस रहे विकारों पर प्रबल प्रहार कर इन सबको भस्म कर देता है |

ਮਿਟੰਤ ਸਗਲ ਸਿਮਰੰਤ ਹਰਿ ਨਾਮ ਨਾਨਕ ਜੈਸੇ ਪਾਵਕ ਕਾਸਟ ਭਸਮੰ ਕਰੋਤਿ ॥੧੮॥

मिटंत सगल सिमरंत हरि नाम नानक जैसे पावक कासट भसमं करोति ॥१८॥


आस्था मनुष्य के मन को दृढ़ करती है की वो अकेला नहीं है | अकाल पुरख हर पल उसके साथ है उसका हर दुःख हरने के लिए | और उसको जोड़ती है अपने आराध्य के साथ कि वह उसकी उपस्थिति को पूर्ण रूप से स्वीकार कर उसमें लीन हो जाए |

ਮਨ ਹਰਿ ਜੀ ਤੇਰੈ ਨਾਲਿ ਹੈ ਗੁਰਮਤੀ ਰੰਗੁ ਮਾਣੁ 

मन हरि जी तेरै नालि है गुरमती रंगु माणु 


आस्था उसे 'गुरमुख' बनाती है और यही गुरमुख समाज में आध्यात्मिक क्रांति लाते हैं | सब जीवों को 'सच खंड' में बसने के लिए और गुरबाणी से जुड़ने के लिए प्रेरित करते हैं | 

तो आइए उस 'करता पुरख' से हर क्षण यही अरदास करें की उसकी असीम कृपा से हमारे मन में आस्था की ज्योत प्रज्वलित हो सके |

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